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प्रेम खनाल

वस्तुत: कोई भी मनुष्य  किसी दूसरे जैसा होनेको पैदा नहीं हुआ है। प्रत्येकको स्वयं जैसा ही होना है।  प्रत्येकको उस वीजको ही वृक्ष पहुं जाना है जो कि उसमे ही छिपाहै,  ओर मौजूद है।

शिक्षा जिस दिन भी व्यक्तिको अद्वितीय ओर वेजोड निजता के सत्यको स्वीकार करेगी उस दिन ही एक वडी क्रान्तिका सूत्र पात होजायेगा। फिर हम  किसी के उपर नहीं थोपेगें। वरन उस व्यक्ति के वीजमे जो प्रसुप्त है उस के जागरण के लिए चेष्टारत होंगे। आदर्शों के कारण वहुत हिंसा होती रही है ओर व्यक्तिको  वही होनेका अवसर नही दियाजा सकताहै जो कि वह हो सकताहै। ओर अन्य होने के प्रयासमें अन्यतो कोइ हो ही नहीं पाता है।

एक अध्यापक राष्ट्रपति होने से वडा नहीं हो जाता है। जीवन एक सहयोग है।उसमें  सवका अपना अपना स्थान है ओर सवकी आवश्यकता है ओर अनिवार्यताहै। कार्यों के साथ पद ओर प्रतष्ठा जोड्ने से सारी दुनिया जिस महत्वाकांक्षा कि विछिप्तता मे पड गई है क्या वह आपको दिखाइ नहीं पडरही है? 

यह मूर्खता पूर्ण है कि गुलावको जुही होनेका उपदेश दिया जावे या कि धांस के फूलको कमल होने होने के लिए उसकावा जावे। अर्थ पूर्ण वात इतनी ही है कि गुलाव पूरा विकसित हो ओर घांसका फूल भी पूरा विकसित हो। उसकी पङ्खुडियां अविकसित न रह जायें ओर उनकी सुवास उनमें ही बन्द न रह जायें। स्वयं कि  संभावनाएं पुरी विकसित हो ईस के अतिरिक्त जीवनका कोइ ओर आनन्द नहीं है। ओर शिक्षा के कार्य के सम्यक दिशा यही है। आदर्श सिखाने कि कोइ जरुरत नहीं ओर नही किसिका अनुसरण सिखानेकी जरुरत है। व्यक्तिका  निज  व्यक्तित्व पूर्णता कैसे प्राप्तहो,ईसओर ही सारे प्रयास होने चाहिये। ओर तब ही महत्वा कांक्षा से मुक्त होगी ओर ईर्ष्या के ज्वर से छुटकारा होगा। ओर एक समाज निर्मित हो सकेगा जो कि समता ओर शान्तिको उपलव्ध हो सके। महत्वा कांक्षा से मुक्त समाज ही वर्ग हीन ओर शोषणशून्य हो सकताहै।

क्या ऐसी शिक्षा नहीं हो शकति है जो महत्वाकांक्षा पर आधारित न हो? क्या गणित या संगीत ईसीलिए सीखा जासकताहै कि सिखने वाले दूसरे साथियों से आगे निकलनाहै।? क्या गणितके प्रेम से गणित ओर संगीत के आनन्द से ही संगीत नहीं सीखा जा सकताहै? मैं तो देखताहूं कि वस्तुत:संगीत तभी सीखाजा सकताहै ओर उसकी गहिराइयां तभी स्पर्श कि जा सकतीहै जब संगीत से ही प्रेम हो ओर किसी अन्य से प्रतिस्पर्धा नहीं। 

ईश आगे होनेकी दौडकी सुरुआत शिक्षालयों मे ही होती है ओर फिर कव्रिस्तान तक चलतीहै। व्यक्तियों में यही दौड है। राष्ट्रोमैं यही दौड है। युद्ध ईश दौड के ही  अन्तिम फल हैं। यह दौड क्यों है? ईश दौड के मूल मैं क्या है? मूल में है अहं कार! अहंकार सिखाया जाता है,अहंकार का पोषण किया जाताहै।

छोटे छोटे वच्चों में अहंकारको जगायाजाता है।उन के निर्दोष ओर सरल चित्त अहंकार से विषाक्त किए जातें हैैं। उन्हे भी प्रथम होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। स्वर्णपदक ओर सम्मान  ओर पुरस्कार वांटे जाते हैं।फिर यही अहंकार जीवन भर प्रेत कि भांति उसका पिछा करताहै  ओर उन्हे मरते दम तक चैन लेने नहीं देता।

मैने सुना है कि  काशी के  लोगोंको अपना काम निपटा ने के लिए दिली की  दौड लगानी पडती है  ईश लिए लोग दिल्लीकी दौड लगाकर अपना काम निपटा ले रहेहैं ।इस लिए  हम लोग भी अपना काम वनाने के लि क्यों हम भी अपना कोइ दूत वनाकर दिल्ली भेजदें? किसि कुत्ते के मन में ये भनक उठी ओर उसने अपने सरदार से कहा। कुत्तेका सरदारको भी ये सुझव अच्छी लगी ओर उसने एक समारोहका आयोजन किया गया दौडकी प्रतियोगिता करायी गई।दौड में जो फर्ष्ट आया उस कुत्तेको फूल मालाएं  पहनायी ओर उस कुत्तेको काशी से दिल्ली के लिए रवाना करदिया गया। काशी के कुत्तों ने दिल्लीके कुत्तों के सरदारको  कि हमारा नेता आ रहा है वहाँ का सर्किट हाउस में रिजर्वेशन कर रखना। एक महीना लग जायेगा पहुंच ने मे लम्वी यात्रा है।

लेकिन वडी मुस्किल हो गई। महीने भर वाद पहुंचने कि वात थी,वह जो कुत्ता था वह तो सिर्फ सात दिन में ही दिल्ली  पहुंच गया। दिल्ली के कुत्ते वहुत हैरान हुए। ऐसे उन्होने वहुत नेता देखेथे, लेकिन इतनी तेजीसे आता कोइ नहीं देखा था। सात दिनों में आयाथा? तो उन्हों ने पूछा कि तुम सात दिन में कैसे आगए, महीने भरका रास्ता सात दिन में कैसे पार कर लिया? हाँफ रहाथा वह कुत्ता। उसने कहाँ कि वताता हूँ। काशी से चला था तो यही शोचा था कि महीने भर,सायद ओर भी दिन  ज्यादन लग जायेंगे। लेकिन काशीके कुत्ते जहाँ छोड गए थे,दूसरे गाँव के वहीं से मेरा पीछा किया।वे कुत्ते मुझे दूसरे गांव तक पहुचा गए। वहाँ से दूसरे कुत्ते मिल गए, उन्होने मेरा पीछा किया। मुझे विश्रामका मौका ही नहीं मिला। कहीं ठहर ही नहीं सका।महीने भरकी यात्रा सात दिन में पुरी हो गयी। लेकिन मेरे मित्रों,यह यत्रा मेरी विलकुल ही पुरी हुई जाती है, इतना कहते-कहते वह कुत्ता मर गया। पहुचा तो दिल्ली, लेकिन  लास पहूंची दिल्ली , मरा हुआ पहूं चा दिल्ली?तेजी से तो पहुंच गया—-!

  मह भी आदमीको दौड शिखाते हैं ओर वांकी ओर सव उसके पीछे पड जातेहैं। कोइ उसको विश्राम करने नहीं देते जीवन में। पहले माँ वाप पिछे पडे रहते हैं,फिर पत्नी पड जाती है ,फिर  लडके वच्चे पड्जातेहै।उसको दौडाते रहते हैं। एक दिन दिल्ली पहुंच जाताहै विचारा।लेकिन लास पहुंच जाती है दिल्ली,कोइ जीन्दा आदमी नहीं पहुंचा। वहाँ जाकर सास टुट जातीहै। दौडतो हम सिखाते हैं,लेकिन पहुंच कोइ नहीं पाता है ईश दौड में कहीं भी। दौडो ओर दौडो ओर पहुंचना कहीं भी नहीं है।

क्या हम इसको सम्यक शिक्षा कहें? लेकिन हमारे सामने ओर शिक्षकों के सामने यही सवाल है कि अगर महत्वाकांक्षा न सिखाएं तो फिर कोइ चलेगा ही नहीं ।सव जड हो जायेंगे अपनी अपनी जगह,कोइ गति ही नही करेगा। नही मनुष्य  ओर तरह से भी गति कर सकता है। ओर जीवन में जिन लोगोने कभि भी गति की है–गति, सीधी ओर सहज  दूसरे के प्रतिस्प्रधा में नहीं, वल्कि अपने आनन्द में । विनसेन्ट वानगांग से ,एक डच पेन्टर से उस के मित्रोंने पूछा, किसलिए चित्र वनाते हो? क्या ईसलिए कि  दूसरे चित्रकारों से तू आगे निकल जाये? वानगान ने कहा दूसरे चित्रकार? मुझे आज तक खयाल नहींआया उनका।मै चित्र वनाताहूं ईसलिए कि  चित्र वनान मेरा आनन्द है ।ओर किसी दूसरे से आगे निलनेका सवाल कहाँ? अपने से ही आगे निकल जाउं रोज तो काफी है।

ईसके लिए शिक्षणकी आमूल पद्धति ही वदलनी होगी। प्रथम ओर अन्तिम कि कोटियां तोडनी होगी।

विनय के उपदेश  दिए जातें हैं  ओर सिखाया अहंकार जाता है। क्या वह दिन  मनुष्य जाति के ईतिहास में सवसे वडा सौभाग्यका दिन  नहीं होगा  जिस दिन हम वच्चों को अहंकार सिखाना बन्द कर देंगे? अहंकार नहीं  प्रेम सिखाना है। ओर प्रेम वहीं होता है,जहाँ अहं कार नहीं है। परीक्षाओं समाप्त करना होगा। ओर इन सवकि  जगह जीवन के उन मूल्यों कि  स्थापना करनी होगी जो कि अहं शून्य ओर प्रेमपूर्ण जीवनको सर्वोच्च जीवन दर्शन मानने से पैदा होता है। 

मैं  जीवनका मूल्य मात्र सफलता में ही नहीं देखता ।  मैं उसे देखता हूं सत्य में ,शिवत्व में, सौन्दर्य में, लेकिन सफलता ही जब हर वातका माप दण्ड है तब तक सत्य की, शिव कि ओर सौन्दर्य की ओर मनुष्य कि  आत्मा गतिमान  नही हो शक्ति है। सत्य के लिए,शिवत्व के लिए, सौन्दर्य के लिए असफलताको भी शिखा जाना चाहिए। उस दिशा में असफलता भी गौरव है ,यही दृष्टि पैदा होनी चाहिए। सत्य के लिए हार जाना भी जीत है।क्योंकि उस के लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है ओर उन शिखरोंको छू पाती है जो कि परमात्मा के प्रकाश से आलोकित है। विजय ओर पराजय अर्थ हीन है। इसका अर्थ है मोर्चेका  किस मोर्चे पर विजय पराजय? सत्य के या असत्य के, प्रेम के या घृणा के,मनुष्यता के या दानवता के? 

 ओर मै कहता हूं कि धन्य हैं वो लोग जो असत्य कि विजयको छोडते हैं ओर सत्य के साथ पराजयको आलिङ्गन करतेहैं क्यों कि ईश भांति रहकर भी वे जीत जाते हैं ओर मिटकरभी उसे पालेते हैं जो कि अमृत है। लेकिन यह सव तभी संभव है जब शिक्षा में आमूल परिवर्तन हो /क्रान्ति हो ओर मात्र सफल मात्र सफलता ओर विजयके वे मूल्य अपदस्त हों जिन्हों ने कि सदियों से मनुष्यको पीडित कर रखाहै।

मेरी दृष्टिमें शिक्षक वही है जो  प्रसुप्त समस्याओंको जगा देताहै ओर जिज्ञासाको जाग्रत कर देताहै ओर वच्चों को उन के स्वयं के अनुसन्धान के लिए साहस ओर अभय से भरदेता है। लेकिन कोइ भी व्यक्ति ईश अर्थमें शिक्षक तभी हो सकता है जब वह स्वयं आग्रहों ओर पक्षपातों से मुक्त हो। 

ईशलिए शिक्षक होना वडी साधना है। शिक्षक होने के लिए अत्यन्त विद्रोही,सजग ओर सचेत आत्मा चाहिए। जिस शिक्षकमें विद्रोह कि अग्नि नहीं है वह जाने या अनजाने किसी स्वार्थ,किसी नीति किसी धर्म या किसी राजनीतिका दलाल ही हो जायेगा। क्यों कि तब वह उन पक्षपातों को ओर उन धारणाओं को वच्चो पर आरोपित करेगा जिन में कि वह स्वयं ही कैद है। 

शिक्षक स्वयं स्वतन्त्र हो तभी वह विद्यार्थी के लिए भी स्वतन्त्रताका सन्देशवाहक हो सकताहै। ईसलिए मैने कहाँ कि शिक्षक होना वडी साधना है। शिक्षक के भीतर-भितर  एक ज्वलन्त अग्नि होनी चाहिए चिंतनकी विचारकी विद्रोह कि।उसे वहुत कुछ  विध्वंश भी करनाहै ताकि वह सृजन कर सके। उसे वहुत कुछ मिटाना है ताकि वह वना सके। वह परमपराओं से छोडा गया वहुत सा कुडा करकट जलानाहै ओर व्यर्थ के घाँसपात से मनुष्य के मनकी भूमिको साफ करनाहै ताकि उस पर प्रेम के ओर सौन्दर्य के फूलों कि खेती हो सके। 

यह वहुत वडा उत्तर दायित्व है।यदि शिक्षक इसे पूरा कर सकेगातो ही एक नये मनुष्यका  जन्म हो सकताहै।

ओशो अगडी भन्नू हुन्छ कि” जो शिक्षा पुरुषोंको मिलती है वही शिक्षा स्त्रियोंको देना अत्यन्त खरनाक है,एकदम गलत है। उचित है कि पुरुष गणित सीखे,विज्ञान सीखे लेकिन वहुत उचित होगा कि स्री ओर  सीखे जो पुरुष नहीं सीखता। उसे जीवनमें कुछ ओर करनाहै। उसके उपर जीवनने कोइ ओर दायित्व दियाहै ,कोइ दूसरी रेस्पोन्सिविलिटी है उस के उपर। उसके उपर प्रेमका, सृजन का कोइ दूसरा भार है।

गणित सीखनेसे दुकानें चल शक्ति होगी,वच्चे नहीं पैदा किए जासकते, वच्चे नहीं वडे किए जा सकते। साइन्स से फैक्ट्री चलसकती होगी लेकिन परिवार नही चल सकते ओर परिणाम यह हुआ है कि स्री को पुरुष जैसी दीक्षा ओर शिक्षा ओर समानता के भाव ने स्त्रियों से जो भी उनका मातृत्व भावथा वह सव छीन लिया है। उन के जीवन में जो भी गौरवपूर्ण पत्नीत्व था वह सव छिन लिया है। उन के भितर जो भी स्त्रैण्य गुण थे वह सव नष्ट किया जारहा है। वे करीव करीव पुरुष कि नक्कल में निर्मित की जारही हैं ओर वे वहुत प्रशन्न भी मालुम होती हैं।ईश प्रसन्नता के लिए हजार हजार आँशु आज नहीं कल स्त्रियो को तो  रोने ही पडेंगे।

मैं एक छोटेसे स्टेसन पर रुका हुआथा।मेरी गाडी आने में देर थी, वह एक  छोटे से देहात( गाउंका)का स्टेसन था ओर एक वूढी स्त्रीको कुछ लोग ले जारहेथे उसके शिर पर पट्टियां बांधी थी। दो तीन स्त्रियां भी उस के साथ थीं। वे  वाहर वडे अस्पतलमें  उसे ले जानेको लाए हैं।

मैने पूछा ईश स्त्रीको किसने मार दियाहै? उसके साथ के स्त्री ने कहाँ कि इसका एक ही लडकाहै ओर उसी लडके ने  इसको लकडी से चोटपहुंचाइ है, ईश के शिर मैं लहूलुहान कर दिया, यह वेहोस हो गयी थी,अभि अभि होस मे आई है। हम इसे अस्पताल लेजारहे हैं। दूसरी स्त्री ने  जो उसी के साथ थी, कहाँ कि ऐसे लडके तो पैदा ही न हो तो अच्छा है। लेकिन उस वुढी ने जिस के शिर से खून वह रहाथा,उस दूसरे स्त्री के मूह पर हाथ रख दिया ओर कहाँ – ऐसा मत कहो, अगर लडका न होतातो आज मुझे मारता भी कौन? उस लडके का होना ही मेरे लिए वहुत है। उस ने मारा वह तो वहुत छोटि सी वात है ,फिर वूढी कहने लगी, लडके ही हैं अभि समझ ही कितनी है। आज मार दिया कल समझ वापस आजयेगी। 

एक मां का हृदय है जो गणित मे नहीं सोचता, जो कानून मे नही सोचता ।जो किसी प्रेम ओर आशा से सोचता है।

सायद हमें ईश वातका खयाल नहीं कि स्त्री ओर पुरुष के चित्त में वुनियादी भेद ओर भिन्नता है ओर यह भिन्नता अर्थ पूर्ण है। स्त्री ओर पुरुषका आकर्षण उसी भिन्नता पर  निर्भर है। वे जितनी भिन्न हों,वे जितनी दूर हों,उनके भिततर पोलैरिटी हो,उत्तर ओर दक्षिण ध्रुवों कि  उनमें भिन्नता हो, उतना ही उनके वीच आकर्षण  ग्रेविटेशन होगा। उतना ही उन के वीच प्रेम का जन्म होगा ,जितना उनका फासला हो,उनकी भिन्नताहो,जितने उनके व्यक्तित्व अनूठे  ओर अलग हों जितने वे एक दूसरे जैसे नहीं वल्कि एक दूसरेके परिपूरक ,कम्प्लेमेन्टरी हो। अगर पुरुष गणित जानता हो ओर स्त्री भी गणित जानती हो तो ये दोनों वातें उन्हे निकट नहीं लातीं। ये वातें  उन्हे दूर ले जायङ्गी। अगर पुरुष गणित जानता हो ओर स्त्री काव्य जानती हो,संगीत जानती हो,नृत्य जानती हो तो वे ज्यादा निकट आएंगे। वे जीवनमें  ज्यादा गहरे जीवन साथी वन सकते हैं ओर जब एक स्त्री पुरुषों जैसी दीक्षित हो जाती है तो ज्यादा से ज्यादा पुरुष को स्त्री होनेका साथ भर  दे शक्ति है लेकिन उसके हृदयके उस अभावको जो स्त्री के लिए प्यासा ओर प्रेम से भरा होताहै उस अभाव को पूरा नही कर शकती।

अब  १००८ श्री खप्तड स्वामीका  विचारमा गुणस्तरीय शिक्षा –

नारीमा हुने गुणधर्म र शिक्षा –

सृष्टिका आदि श्रोत हुन् नारी।नारी सृष्टि  – सिर्जनामा पुरुषका पूरक हुन् यिन वाट सृष्टिको आरम्भ भयो।सृजना र वृद्धि नारीका प्रभुत गुण हुन्। नारीलाइ दिइने शिक्षा पुरुषको भन्दा भिन्न हुनु पर्छ।उनलाइ दिइने शिक्षा उनलाइ पुरुष वनाउने हुनु हुंदैन किन भने जसभित्र जुन मौलिक सत्ताछ त्यसैलाइ प्रकट गर्नु र पुष्ट गर्नु शिक्षाको लक्ष्य हो। स्त्री जातिका मौलिक सत्ता तीन छन् – उनी असल माता, सद्गृहिणी तथा आदर्श सती हुन्।

हामीले बाल वालिकाको शिक्षामा एकरुपताको स्थापना गरि गर्व अनुभव गर्यौ। किन्तु उनीहरुमा विद्यमान निसर्गजात(स्वभाविक) सत्यलाइ विर्सियौं। पुरुष सभ्यताहो भने नारी संस्कृति हो, पुरुष मस्तिष्क हो भने नारी हृदय हो,पुरुष ज्ञान हो भने नारी भक्ति निष्टाहो। 

नारीलाइ उनका गुण धर्म अनुसार,संस्कृत शिक्षा, मातृभाषा शिक्षा ,साहित्य शिक्षा, गीता आदि धर्म ग्रन्थहरुको शिक्षा तथा  साधारणतया चिकित्सा तथा पदार्थ विद्याको शिक्षा दिनु  उचित हुन्छ।जस वाट बाल वच्चाको समान्य विमारीमा डाक्टर वोलाउन नपरोस। कन्याहरुलाइ शिल्प शिक्षा तथा भोजन वनाउने शिक्षा विशेष रुपले दिनु पर्छ।

स्त्री र पुरुष एक यस्ता द्वन्द हुन्,दुवै एक साथ रहेमानै दुवैमा शोभाछ। उभय शक्तिको  समानता भएमा सृष्टि चल्न सक्दैन। किन भने  विषमतानै सृष्टिको कारणहो र समानता लयको कारण हो। सती धर्मको यस रहस्यलाइ संसारका सवै जातिले पूर्णरुपले संझे,वुझेका छैनन्, जुन जातिको अध्यात्मिक स्थितिको उत्थान जति अधिक हुन सकेकोछ,त्यस जातिले यसको रहस्यलाइ त्यतिनै अधिक वुझ्न सक्छ।

समानाधिकार

आजकल स्वास्नी -मानिसलाइ  सवै कुरामा समानता  चाहिन्छ। उनीहरुलाइ पुरुष प्रति विद्वेषको भावना उत्पन्न गराएर उक्साइन्छ। कति शिक्षित महिलाहरु त उक्सिन्छन् पनि पाश्चात्य शिक्षा वारुणको नशा यस्तैछ। यसले वास्तविक कुरा वुझ्न दिंदैन। समान अधिकारको कुरात तेतिवेला निक्लन्छ जब दुई वटा कुरा वस्तुत:भिन्न भिन्न हुन्छन्। हाम्रो संस्कृतिमा त दम्पती लोग्ने स्वास्नीको सम्मिलित नामहो। स्त्री स्नेहको मूर्ति,प्रेमको अवतार र वात्सल्यको प्रतिमा हो। विद्या पद गौरव  मान सम्मान आदिले विभूषित पुरुष, पराक्रमी,वीरयोद्धा पुरुष  पनि सांझमा घर आएर स्त्री को आश्रय लिन्छन्। स्त्री यस्तो आफ्नो अनुपम हृदय शक्तिको वेवास्ता गरेर शारीरिक सम्पत्तीको पछि लागेर पुरुषको प्रतिद्वन्द्वितामा लागि भने  उ आफ्नो विजय पद वाट च्युत हुन्छे। वर्तमान शिक्षा सभ्यताले स्त्रीहरुलाइ विपथ गामिनी वनाइ दिएकोछ। लोग्ने मानिस संगको प्रतिद्वन्दिताले घरको रानी पद छोडेर वजारमा उत्रेकाछन्। स्वस्नीमानिसहरुलाइ स्वतन्त्र नराखिएको  अर्थ नारीलाइ परतन्त्र वनाएर गुलाम वनाउन खोजिएको होइन। स्वास्नी मानिसको खास क्षेत्र मातृत्व हो। उनका सारा अङ्ग यसै मातृत्वको लागि सचेष्ट छन्। जुन शिक्षा र सभ्यताले मातृत्वमा व्यवधान ल्याउंछ,,जुन शिक्षाले  स्त्रीको  पवित्र मातृत्वको आधार स्वरुप सतीत्वमा कुठाराघात गर्छ ,त्यो शिक्षा होइन कुशिक्षाहो।

यश विषयामा अझै गम्भीरताका साथ विचार गर्नु र शिक्षा प्रणालीमा धेरै सुधार ल्याउनु आवश्यकछ ता कि शिक्षाको वास्तविक उद्देश्य पूरा हुन सकोस। 

१)यसै शिक्षाको प्रभावले  आज हाम्रो संस्कृति र आफ्ना महापुरुषहरु प्रति अनि आफ्नो प्राचीन साहित्यमाथि हाम्रो श्रद्धा रहेन। तसर्थ पाठ्य पुस्तकहरुमा हाम्रा प्राचीन संस्कृति ग्रन्थका उपयोगी अंशलाई समावेश गरनु पर्छ।

२)गीता जस्ता सर्वमान्य ग्रन्थ उच्च शिक्षाको पाठ्यक्रममा  राखिने व्यवस्था हुनु पर्छ।

३) स्वधर्मको पालन संगै कुनै पनि अर्को धर्म वा धर्माचार्यलाइ हेलांको दृष्टिले न हेर्नू,जीविका चलाउने काममा छलकपट नगर्नु,शारीरिक परिश्रमलाइ खुसी साथ अँगाल्नु,सवैलाइ प्रेम गर्नु आदि गुणमा विशेष जोड दिइयोस।

४)साम्प्रदायिक विद्वेष वढाउने कुरा कुनै पनि पाठ्यपुस्तकमा समाविष्ठ हुनु हुंदैन।

५) सवै शिक्षालयहरुमा हातले गरिने कारीगरीको काम सिकाउनु पर्छ।  यसै कारण  हरेक स्कुल र कलेजमा प्राविधिकहरु द्वारा यी संस्थाहरुमा फ्याक्ट्रीहरु जस्तै  पुनरुत्पादक(Reproductive)को रुपमा आफ्नो आर्थिक भार कुनै न कुनै  अंशमा स्वयं वहन् गरून्। यही यथार्थ स्वावलम्वन शिक्षा हो।

६) कन्यापाठशालाहरुको पढाइमा कन्याहरु ठूला भएपछि तिनीहरुको सतीत्व मातृत्व सद्गृहिणीपनको नाश नहोस र  ती गुणहरु पूर्ण विकसित होओस भन्ने कुरामा मूख्यतया ध्यान दिनु पर्छ।

७) प्राथमिक विद्यालयका विद्यार्थी र  अध्यापक वारे युक्ति वुद्धिरुप सतर्कता कति आवश्यकछ,यो कुरा शिक्षा शाश्त्रीहरुले अझै वुझ्न सकेका छैनन्। प्राथमिक विद्यालयको लागि अध्यापक रोज्ने काम कलेज र विश्वविद्यालयको लागि अध्यापक रोज्ने काम भन्दा अत्यधिक महत्व पूर्णछ।  

आज शिक्षाको उद्देश्यनै एक मात्र धन र धनप्राप्तिवन्न पुगेकोछ। यसैले अध्यापन पेशा पनि अरु पेशा जस्तै वन्न पुगेकोछ। जिज्ञासानै ज्ञानको बिज हो। विद्यार्थीको जिज्ञासावृतिलाइ विकसित गर्नु त्यसमा उत्तम संस्कार स्थापना गर्नुमानै शिक्षाको उपयोगिता रहेको हुन्छ। यश कारणले जुन शिक्षाले मानवमा सद्वृत्तिहरु जागृत गर्दैन जसले मानवलाइ प्रेय(भोग)वाट श्रेय:(मोक्ष) तर्फ लग्दैन,मानवको हृदयमा पसेर मानवलाइ एक श्रेष्ठ जीवन स्वप्न भरिदिंदैन,त्यो शिक्षा होइन सक्षरता मात्रहो। आज यश किसिमको साक्षरतानै संसारका अनेक जटिल समस्याको कारण वन्न पुगेकोछ। यश कारण शिक्षा हाम्रो धर्म संस्कृतिको अनुकूलको हुनै पर्छ र शिक्षा दिने अध्यापकहरु चरित्रवान् र त्यस योग्य हुनु पर्दछ।

जबसम्म  वर्णाश्रमसम्मत  शिक्षा पद्धति प्रचलित थियो तब सम्म आर्य संस्कृति सुरक्षित थियो। आजको विसौं शताब्दीमात हाम्रो संस्कृतिको सुदृढ नाउलाइ हाम्रै हातवाट तहस नहस पार्ने प्रयत्न भैरहेकाछन्। जुन शिखा(टुप्पी) सूत्र(जनै)लाई यवनहरुको तरवारले  काट्न सकेन  , त्यसैलाइ आज हामी शिक्षाभिमानी हिन्दूहरु  स्वयं उन्नतिको नाउंमा कटाइ रहेकाछौं। त्यस्तै स्त्री जातिको सती धर्मलाइ उखेलेर फाल्नको लागि चारैतिर सुसंगठित रुपमा कम्मर कसेर लागिंदैछ। 

यसमा युगको प्रभाव त  प्रधान कारण हुंदैहो,तर त्यसको सिद्धिमा  एक ठूलो कारणछ, त्यो हो हाम्रो धर्म संस्कृति हीन शिक्षा पद्धति। यश शिक्षाको पछाडि एक विदेसी संस्कृतिको प्रेरणाछ,जसले हाम्रा आँखा  तिरमिर पारिदिएकोछ।जुन देसको यो यभ्यता थियो ती देशहरु यश वाट हैरान भएर यस वाट मुक्त हुने वाटो खोजीरहेकाछन् भने हामी भाग्यहीन र अन्धामानिसहरु यसैलाइ अँगाल्न आँखा चिम्लेर दौडिरहेकाछौं। आज शिक्षाको उद्देश्यनै एक मात्र धन र धन प्राप्ति वन्न पुगेकोछ।तेसैले  अध्ययन पनि अरु पेशा जस्तै वन्न पुगेकोछ। 

आजकालकाविद्यार्थीहरुमा प्राय:ईश्वर र धर्ममा विश्वासको अभावछ। खान पानमा कुनै परहेज छैन,  कुनै कुरामा आत्म संयम छंदै छैन। छात्र छात्राहरुमा ब्रह्मचर्यको अभावले गर्दा ज्यादै अधिक संख्यामा उनीहरु धातु सम्वन्धी रोगले ग्रस्त छन्।  माता पिता आदि गुरुजनहरुलाइ मूर्खको रुपमा हेर्नू उनका कार्यहरुमा दोष देख्नु, आजकलका शिक्षित मानिसहरुको स्वभाव वन्न पुगेकोछ।

हाम्रो वर्मान शिक्षा-

अत्यन्त दु:खका साथ भन्नू परेकोछ कि आज हामी साक्षरतालाइनै विद्या अथवा शिक्षाको पर्याय मानी रहेकाछौं। वस्तुत: हाम्रो संस्कृतिले हामीलाइ सिकाउंछ जसले प्रेयवाट( भौतिक सुख सुविधा) श्रेय (मोक्ष, मुक्ति) तर्फ लैजान्छ त्यो वल्ल वास्तविक शिक्षाहो, त्यस शक्तिको आर्जन गर्ने साधनानै शिक्षाहो।

कपडाहरुको कारखाना जस्तै शिक्षाका पनि फ्यक्ट्रीहरु खुलेकाछन्। कति कपडा र  फलाम उत्पादन भयो यो वर्ष भने झैं कति स्नातकहरु यश वर्ष कुन विश्वविद्यालय वाटनिस्के यसैमा प्राय शिक्षा संस्थाहरुको अङ्कगणित चल्छ। आज विद्या र ज्ञानको माप दण्ड चरित्र र जीवन होइन,प्रत्युत कागजका छापिएका उपाधि पत्र हुन्।

आज  सुनार,कुमाले सार्की या कुमालेका छोराहरु आफ्ना परम्परागत शिल्प चलाउंदा आफ्नो मान हानी संझन्छन्। अड्डाको नोकरी वाहेक अरु कुनै पनि काममा ती प्राय : असमर्थ हुन्छन्। साच्चै भन्ने हो भने यसैले आज चारैतिर वेकारी वढी रहेकोछ। आज सवैलाइ नोकरी चाहिएकोछ । झुठ्ठा ज्ञान र शौखको लागि खर्च वढी रहेकोछ।परिणाममा कहीं कहीं त आत्महत्याको स्थिति पनि देखा परेकाछन्। 

भगवानश्रीकृष्णजीले गीतामा भन्नू हुन्छ-

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धि लभते नर:।

स्व:कर्मनिरत: सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु। गीता १८/४५

यत:प्रवृति भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्व कर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानव:।।१८/४६

अर्थात् जसको  जुन स्वभाविक कर्महो उसले त्यही कर्म गरोस, सवै कर्म एक जस्तो हुन सक्दैन र एकै जस्तो वनाउने कोसिस पनि गर्नु हुंदैन। स्व कर्म या स्व धर्म विगुणै भए पनि त्यसैमा रहेर मानिसले आफ्नो चित्त  शुद्धि गरेर आफ्नो विकास गर्नु पर्छ। अर्काको धर्म राम्रो लागोस तर त्यसलाइ हामीले ग्रहण गर्दा हाम्रो कल्याण हुंदैन। सूर्यको प्रकाश हामीलाइ राम्रो लाग्छ तर त्यो प्रकाश राम्रोछ भनेर  हामी पृथ्वीलाइ छाडी सूर्यलोकमा गएर वस्छु भनेर सूर्यको नजिकमा पुग्यो भने  हामी डढेर भस्म हुनेछौं।माछालाइ यदि कसैले भनोस पानी भन्दा दूध मीठो हुन्छ भन्यो भनेर माछाले पानीलाइ छोडेर दूधको पोखरीमा गएर वस्यो भने उ मर्छ। सत्य त यो हो कि हाम्रो जन्म संगै स्वधर्म पनि जन्मन्छ। स्वधर्म हामीलाइ सजिलै संग प्राप्त भएको हुन्छ । त्यसको परिपालना हामी वाटसजिलै संग हुन पर्नेहो तर अनेकौं प्रकारका बौद्धिक अपराधहरुले गर्दा स्वधर्मको पालन गर्नमा मानिसहरु आँफुलाइ असमर्थ मान्न लागेकाछन्। कहिले जमानालाइ दोष दिन्छ भने कहिले कलियुगलाइ गाली गर्छ। दोष छ भने रहन दिनुस तपाईं आफ्नो स्वधर्म पालन गर्नुस यसैमा कल्याणछ।

श्रीमद्भगवत गीतामा भगवान श्रीकृष्णले  विभिन्न वर्गमा छरिएर रहेका समाजका मानिसहरुलाइ मैलेनै उनिहरुमा विद्यमान गुण ,संस्कार र कर्म अनुसार चार भागमा विभजन गरेको हूं भनेर भन्नू भयो जस्तै- 

(चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागस:।

तस्य कर्तारमपिमां विद्ध्यकर्तारम व्ययम्।। गीता4।13

अर्थात्  तत्कालिन समयमा  विभिन्न समुदायमा छरिएर वसेका  मानिसहरुको समूहलाइ उनिहरुमा  निहित गुण धर्म स्वभाव ,प्रकृति अनुसार    ब्राह्मण,क्षत्रीय ,वैश्य र शूद्र यति चार वर्णहरुमा विभाजन गरेको हूं र कामको वर्गीकरण गर्दा समेत मैले उनिहरुमा जे जस्ता गुण  (सत्व,रज, तम ) थिए त्यसै अनुसार, उनिहरुको स्वभाव ,संस्कार एवं जस्को जुन कर्ममा अभिरुची थियो त्यसै अनुरूप कर्म तोकी तद् तद् कर्म गर्न प्रयुक्त गरेको हूं।

(शमो दमस्तप: शौचं,क्षान्ति रार्जवमे व च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म:स्वभावजम्।।) गीता18।42

अर्थात्  तत्कालिन समयमा  जुन वर्गमा मनलाइ वसमा राख्न सक्ने,कसैले गालीगरे पनि अन्त:करणमा विकार आउन नदिने, दम इन्द्रियहरुलाई   नियन्त्रणमा राख्न सक्ने ,संयमित भएर वस्न सक्ने , शारीरिक तथा मानसिकरुपले शुद्ध रहने

,क्षमा- अन्त:करणवाटै क्षमा दिन सक्ने। सरलता,ज्ञान- आत्मज्ञान विज्ञान शाश्त्रहरुको तत्व ज्ञान, आस्तिक्यं- शाश्त्रहरुका वचनमा श्रद्धा र विश्वास  राख्न सक्ने  यस्ता प्रकृतिका व्यक्तिहरु  ब्रह्मकर्म  गर्नका निमित्त उपयुक्त हुने भएकाले तेस्ता स्वभाव प्रकृति भएका सत्वगुण भएका व्यक्तिहरुलाइ ब्राह्मण वर्गमा राखी त्यस्तालाइ   तिनका गुणधर्मानुसार ब्रह्मकर्ममा नियुक्त गरेको हूँ। 

दोश्रोवर्ण  क्षत्रीय

(शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्षं युद्धेचाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षत्रधर्म स्वभावजम्।।गीता 18।43

जसमा शौर्य- सूरवीरता,तेज- कसै संग नदवीने स्वभाववाला,धृति

धारणा शक्तिवाट उत्साहित भएको व्यक्ति  जसमा नाश या शोकको अभाव रहन्छ,दक्षता-( सहसा प्राप्तभएको उत्तम

कार्यमा विनाघवडाहट प्रवृत्त हुनु), युद्धेचाप्यपलायनं  युद्ध वाट पछि नहट्नु, दानं -ठूलो दिलले दान गर्नु, ईश्वरभाव- जसमाथि शासन गर्नेहो उनिहरु प्रति प्रभुत्व प्रकट गर्नु। यस्ताप्रकृतिका मानिसहरुमा सत्वगुण र रजोगुणको समिश्रण रहनाले यस्ता गुणधर्म भएका व्यक्तिहरुलाइ  क्षत्रीय वर्गमा  राखी उनिहरुलाइ क्षत्रकर्म ( क्षतात्किल त्रायत इति क्षत्र अर्थात  राष्ट्र,  र जनतालाई सुरक्षा दिई कुनै प्रकारको क्षति हुन नदिने) कार्य तोकेकेहूं।।

यसै गरी तेश्रो वर्ण -वैश्य र चौथो वर्ण शूद्र

(कृषि गौरक्ष वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।)गीता 18।44

तेश्रो वर्गमा  वैश्य –  जुन जुन व्यक्तिहरुमा  रजोगुणको वाहुल्यता सहित  मिश्रित तमोगुण भएका तथा कृषि  र वाणिज्य- कार्य गर्नमा अभिरुचि राख्ने  जनसमूहलाइ वैश्यवर्गमा  राखि उनिहरुलाइ पनि उनिहरुकै स्वभाव प्रकृति अनुसार कृषिकर्म गर्ने ,गाइ र अन्य पशुपालन गर्ने, वेच विखन गर्ने आदि  कार्य तोकेकोहूं र 

जुन वर्गमा मिश्रित रजोगुण र तमोगुणको वहुल्यता देखियो त्यस्ता व्यक्ति समूहलाइ  उनिहरुकै रुचि स्वभाव प्रकृतिअनुसार  समाजसेवाको कर्म तोकेको हूं भनि भगवानले वताउनु भयो।

 तेस वेलाको समाजलाइ चार वर्गमा विभाजन गर्नु र उनिहरुका गुणधर्म अनुसारका कर्ममा प्रवृत्त गराउनुको मूख्य उद्देश्य  राष्ट्र र समाज सुव्यवस्थित ढंगले चल्न सकोस । राज्य सुदृढ र समुन्नत रहोस , सवै वर्गले आंफुलाइ तोकिए  अनुसारका कर्महरु  दत्तचित्त भै गरून् र राज्य सुव्यवस्थित ढंगले चलोस भन्ने नै रहेको देखिन्छ। जस्तो कि लौकिक व्यवहारमा  हेर्दा पनि जस्तै उद्दाहरणको लागि यौटा घर निर्माणलाइनै लिउं। घर निर्माण गर्नको लागि कति दक्ष जनशक्ति चाहिन्छ? जस्तै घरको डिजाइन गर्ने इन्जीनियर, ठेकेदार, दक्ष डकर्मी सिकर्मी लेवर इलेक्ट्रिसियन, प्लम्वर ,लेवर, पेन्टर, स्वीपर आदि दक्ष, अर्धदक्ष  जनशक्ति आावश्यकता पर्छ।  राज्य व्यवस्था संचालन गर्न पनि  उपयुक्त व्यक्तिलाइ उसका गुण धर्म अनुसार उपयुक्त ठाउंमा नियुक्त गर्नु पर्यो यसैलाइ विचार गरेर  समाजलाइ चारभागमा विभाजन गरेर गुणस्तरी राज्यव्यवस्था चलोस सुव्यवस्था कायमहुन सकोस सेवा ग्राहीलाइ गुणस्तरीय सेवा उपलब्धहोस भन्ने उद्देश्यलेनैयस प्रकार विभाजन गरिएको देखिन्छ ।

तत्कालिन व्यवस्था अनुसार  ब्राह्मणहरु सात्विक ,धार्मिक एवं धर्मको मर्म वुझेका हुनेलाइ  सात्विक कर्म गर्न अभिप्रेरित गरियो र ब्रह्मज्ञानको उपदेश दिइयो र राज्य संचानमा आउने शंकटको गांठो फुकाउन शाश्त्रीय विधि तय गर्न राज्यको प्रमुख अंगकारुपमा राजालाइ आवश्यक सरस्लाह सुझाव दिन सल्लाहाकारको रुपमा ब्राह्मणहरुलाइ नियुक्त गर्ने व्यवस्था गरेको देखिन्छ। तत्कालिन व्यवस्थानुसार राजाहरुले राज्यव्यवस्था सुदृढ ढंगले  चलाउन ब्राह्मणहरुलाइ गुरु स्थापना गर्दथे जस्तो राजा दशरथजीले जुन सुकै धर्म संकटपर्दा गुरुवशिष्ठ संग सल्लाहा लिनु हुन्थ्यो। राजाले दक्ष सेनापती राख्थे यस्तै गुप्तचर , कुनै दैवी वा प्राकृति विपत्ती जस्तै अनावृष्टि ,अतीवृष्टि वा अन्य राज्यमा कुनै विघ्न वाधा उत्पन्न हुंदा पनि आवश्यक सरसल्लाह गर्थे।राज्यको धुकुडी कोशको व्यवस्थापनको लागि दक्ष अर्थविभाग प्रमुख रहन्थे जस्तै देवलोकमा कुवेरजी हुनु हुन्थ्यो। यसै गरी सेवाको कार्यमापनि दक्ष  व्यक्तिको प्रमुखत्वमा अरुसेवकहरु नियुक्त हुने गर्थे र राज्य व्वस्था  सुदृढ ढंगले चल्दथ्यो। जस्तो समुन्नत राष्ट्रमा के कस्तो व्यवस्था हुनुपर्छ? भन्ने कुरा त्यसवेलाको वैदिक राष्ट्रगानवाट देख्न सकिन्छ।

(ओं आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्म वर्चसी जायता महाराष्ट्रे राजन्य :शूर $इषव्यो$ति व्याधी महारथो जायतां जोग्ध्रीधेनुर्वोढा$नड्वानाशु:सप्ति:पुरन्धिर्योषा जिष्णुरथेष्ठा सभेयो:युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां  निकामे निकामे न:पर्जन्यो वर्षतु फलवत्योन$ओषधय:पच्यन्ताम् योग क्छ्येमो न:कल्पताम्।)

अर्थात् हाम्रे राष्ट्रका व्राह्मणरु ब्रह्म वेत्ता (ब्रह्मं यो जानाति इति ब्रह्म विद् स ब्रह्मैव भवति) परब्रह्मपरमेश्वरलाइ जानेका तेजस्वी,ओजश्वी,राजा र राषट्रलाइ उचित परामर्श दिन सक्ने क्षमता वानहोउन्, राजा क्षत्रीय गुण सम्पन्न निरोगी उदात्त चरित्र धीरोदात्त कर्मयोद्धा होउन्,प्रजाजन सवैका घर घरमा दूध दिने वाली गाइ होउन् ,भारवहन गर्न सक्ने  पशुहरु (गोरु घोडा ) होउन्, स्त्रीहरु ,कुशल ,शुशील र दक्षहोउन् , रथीहरु तालिमप्राप्त साधन र श्रोतले सम्पन्न होउन्, ,युवाहरु सामाजिक सेवामा  ,प्रतिष्ठा कमाएका काममा उत्सुकहोउन्, समय समयमा अनुकूल वर्षाहोस, अन्न वाली फलफूल एवं वनस्पतिहरु समयमा वढुन् हुर्कुन् अन्नफलफूल दिउन् ,राष्ट्रको कोष परिपूर्ण होस र राष्ट्रमा सवै कुराले पूर्णहोस ,अप्राप्य भए पनि प्राप्तहोस  आदि। 

अब गुरु कसलाइ भन्ने? 

सामान्यत गुरु शब्दको अर्थ  यसप्रकार गरेको पाइन्छ 

गुकारो ह्यन्धकारःस्याद् रुकार तन्निवर्तकः।

ब्रह्मान्धकार नाशित्वाद् गुरु रित्युच्यते वुधै:।।

वास्तवमा सद्गुरुले कहिल्यै कसैलाइ आत्मज्ञान दिन सक्दैनन्,किन कि आत्मज्ञान प्रदान गरिने वा संचारित गरिने वस्तु होइन। आत्मज्ञान सवै जीवका भित्रमा रहेको हुन्छ खाली त्यो ज्ञानलाइ ढाकेर वसेको अज्ञानको पर्दालाइ गुरुले हटाएर आत्मज्ञानलाइ साक्षात्कार गराइदिनु हुन्छ। “दीयते ज्ञान सद्भावं क्षीयते कर्मवासना) अर्थात् गुरुले जव आत्मज्ञानको दर्शन गराइ दिनु हुन्छ तद्पश्चात् कर्मवासनाहरु त्यसै हटेर जान्छन्। गुरुले केवल”तत्वमसि” अर्थात् त्यो ब्रह्म तत्व तिमीनैहौ ,खाली तिम्रो ज्ञानलाइ अज्ञानको जालोले ढाकेर वसेको हुनाले तिमीले देख‌न सकेका थियेनौ  त्यो जालो हटेको हुनाले अव तिमी आफैलाइ ब्रह्मरुपमा देख्न सक्छौ ।सर्वत्र परमतत्व विद्यमानछ परमात्मालाइ सर्वत्र देख्न सक्छौ  जस्तै- 

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठे$गि पयसि घृतम्।

ईक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मनि विवेकत:।। चा नी७/२१

समग्र फूलमा वास्ना ,तिलको दानामा तेल ,दाउरामा आगो दूधमा घ्यू उखूमा  गुड(सख्खर) जस्तै मानवमा परमात्मा रहन्छन्।खाली चिन्न सक्नु मात्र पर्छ।परमात्मालाइ जो कसैले चिन्न सक्दैन खाली ज्ञानी पुरुषले मात्र चिन्न सक्छ । अत: विवेकलगाएएर आत्मालाइ चिन्न सकियो भने मात्र कल्याणछ। यसरी शिष्यका हृदयम विद्यमान परमात्मालाइ शिष्यकै अन्त:चक्षु द्वारा दर्शन गराउने काम सच्चा गुरु द्वारा मात्रै हुन सक्छ। अझ यसलाइ यसरी संझन सकिन्छ जस्तै  हाम्रा वाहिरी चर्म चक्षुमा कुनै चोट लाग्यो वा  मोती विन्दु वा जलविन्दु लागेर आँखानदेख्ने भयो भने आँखाका सम्वन्धी डा0 साहवलाइ देखाएमा उनले  सम्वन्धित रोगीको आँखाको शल्य क्रिया गरी उक्त  जालो हटाइ दिन्छन्  र रोगीका वाहिरी आँखाले वाह्य दृश्यमानजगतलाइ देख्न सक्नेवनाइ दिन्छन्  तर सम्वन्धित रोगीका आँखामा जोडिएको दृश्य शक्ति वाहिनी स्नायु (नशा) नै  रहेनछ वा पूर्ण रुपले विग्री सकेको भए  डाक्टरले पनि  अर्को  वैकल्पिक व्यवस्था गर्न सक्दैनन् तेस्तै गुरुले पनि  जस्मा जे जस्ता गुणहरु विद्यमानछन्  तिनैलाइ  विकसित हुन तिनका वरिपरिका झारपात उखेल्न मद्दत गरिदिने हुन् ।

गुरुशिष्य सम्बन्ध-

राजा राष्ट्र कृतं पापं राज्ञ:पापं पुरोहित:।

भर्ता च स्त्री कृतं पापं शिष्य पापं गुरुस्तथा।। चा नी६/१०

राज्यमा भएका वा गरिएका दुष्कर्महरुको फल राजाले भोग्नु पर्छ।राजाले गरेको पापको फल पुरोहित वा राजगुरुले भोग्नु पर्छ,। पत्नीले गरेको पापको फल पतिले भोग्नु पर्छ भने शिष्यले गरेको पापको फल गुरुले भोग्नु पर्छ। किनकि राष्ट्र वा राज्यको कर्तव्य वाट राजा च्युत भए भने त्यसको पाप राजालाइ लाग्छ,राज पुरोहितको कर्तव्य हो कि राजालाइ असल सरसल्लाह दिनु,सत्कार्य गर्नमा मद्दत गर्नु,राम्रो नराम्रो कुराको ज्ञान दिनु, यदि यस्तो गरिएन भने राजाले गरेको पाप पुरोहितलाइ लाग्छ।पतिले पत्नीलाइ पाप कर्म वाट जोगाउनु पर्छ, यस्ता कर्म वाट जोगाउन सकेन भने पत्नीले गरेको पाप पतिलाइ लाग्छ। यस्तै गुरुले शिष्यलाइ सही मार्ग दर्शन गराउन सक्नु  पर्छ  गुरुले यसो गर्न सकेनन् र शिष्य छाडा भएर पाप कर्म गरेमा त्यस्ता शिष्यले गरेका पापको भागिदार गुरुले वन्नु पर्छ भन्ने विश्वास राखिन्थ्यो।

कुनै समय  यस्तो थियो  अमुक शिष्य अमुक आचार्यको शिष्य हुनुमा गौरवान्वित हुन्थ्यो। गुरु आफ्नो जीवननै शिष्यलाइ दिन्थे।यस प्रसङ्गमा यौटा कथाछ -आचार्य दिव्याङ्गका शिष्य चन्द्रधरले आफ्नो अध्ययन समाप्त भए पछि गुरुलाइ भने”गुरुदेव?   म संग दक्षिणा माग्नुहोस”भनी विन्ति गरे। गुरु दिव्ङ्गले”असल अध्यापक भइ देउ “भनी गुरु दक्षिणा मागे। तदनुसार चन्द्रधर  नर्मदाको तटमा आश्रम खोली वसे। कालान्तरमा उनका शिष्य श्वेतकेतु डांका वनेको थाहा पाई उनी त्यहां अज्ञात रुपमा पुगे। डांका वनेको श्वेत केतुले आफ्ना गुरु चन्द्रधरलाइ खूव पिट्यो।उनी रगत पाच्छे भए पछि गुरु भन्ने चिनी उ गुरुको पाउ  पर्यो गरुले क्षमा दिएर उसलाइ आश्रममा लगेर सुधारेर पठाए।  त्यस समयमा कुनै गुरुवाट दीक्षित शिष्यले समाजमा गएर दुष्कर्म गर्यो भने त्यस्तो शिष्यको गुरुसमेत लज्जित हुन पर्थ्यो ,अर्थात् गुरुले आफ्नो सम्पूर्ण  जीवन शिष्यलाइ समर्पण गर्दथे। तेसैले गुरुले आफ्नो शिष्य स्वीकार गर्नु पूर्व वालकमा के कस्ता  गुणहरु विद्यमानछन् ? तिनको गुणधर्म हेरेर तद् तद् विषयको  (ब्रह्म विद्या, राज विद्या ,  वाणिज्यविद्या र सेवा विद्या ) प्रदान गर्नु हुन्थ्यो र तेती वेलाको शिक्षालाइ वल्ल गुणस्तरीय शिक्षा भन्न सकिन्थ्यो।

वुझ्नु पर्ने कुरा केहो भने जसरी यो संसारमा जति पनि पदार्थहरु विद्यमान छन् ती चाहे स्थवार ( पहाड ,पर्वत ढुंगा आदि) र जंगम   (उद्भिज, भूमिवाट उम्रिने वनस्पति बिरुवा रुखवृक्ष आदि,,श्वेदज पसिना वाट पैदाहुनेजुम्रा आदि,अण्डज  अण्डा वाटपैदाहुने माछा सर्प,चराचुरुङ्गी आदि  र जरायुज  शालनालमा वेरिएर जन्मने पशु मनुष्य आदि) कसैको पनि  प्रकृति,स्वभाव गुण र कर्महरु एक समान हुंदैन ।सवैको अलग अलग स्वभाव र गुण, धर्म र कर्म उनीहरुको पूर्व कर्म अनुसार  निर्धरण भै आएको हुनाले यी सवै हरेकका ओंलाका रेखा जस्तै अलग स्वभव,अलग प्रकृति अलग कर्म ,लिएर आएका हुनाले  सवैलाइ यौटै डालोमा राखेर शिक्षा दिनु के उचित होला? जस्तो तमोगुणीहरुका साथमा कुनै सत्वगुणी व्यक्तिलाइ संगै राखेर  तामसी विद्या दिन लागियो भने त्यहां अनर्थ हुन्छ जस्तै सत्वगुण भएका प्रह्लादलाइ उनका बाबू असुर राज हिरण्यकशिपुको आदेशले असुरगुरु शुक्राचार्यका छोरा शण्ड र मर्कले  जतिसुकै असुर विद्या पढाए पनि उनले त्यो विद्या पढेनन् वरु उनैले असुर वालकहरुलाइ नवधा भक्तिको पाठ सिकाए।जवर्जस्ति तामसी विद्या लाद्न खोज्ने हिरण्य कशिपुनै  मारिन पुग्यो।

एकोदर समुद्भूता  एकनक्षत्रजातका:।

न भवन्ति समा: शीले यथा वदरकण्टका:।। चा नी ५/४

एउटै पेटवाट जन्मेका तथा यौटै नक्षत्रमा  जन्मिएका भए पनि तिनीहरु स्वभावमा एकै नाशका हुैदैनन्। उद्दाहरणका लागि यौटैरुखका वयर र  कांडाहरु एक नाश हुंदैनन्। अर्थात् वयरको वोटमा कांडा र फल एकै चोटि पैदा हुन्छन् ,कांडाले घोच्छ वयर भने खान योगय हुन्छ। सहोदर तथा यौटै नक्षत्रमा जन्मेका स्वभाव र आचरण पनि अलग अलग हुन्छ एकै नाशको हुंदैन। मानिसका पूर्व जन्मका गुण कर्म र संस्कार अनुसार कोइ तीक्ष्ण वुद्धिको हुन्छ,कोइ मन्दवुद्धिको हुन्छ,कोइ अन्तर्मुखी हुन्छ कोइ वहिर्मुखी हुन्छ।यस्तै कोइ सत्वगुणी हुन्छ ,कोइ रजोगुणी र कोइ तमोगुणयुक्त हुन्छ। कोइ दैवीप्रकृतिको हुन्छ भने कोइ आसुरी प्रवृतिको हुन्छ। यसैले सवैलाइ एकै किसिमको शिक्षा उपयुक्त हुंदैन।  जस्तो सत्वगुण भएका देवताहरुलाइ देवगुरु वृहस्पतिले दैवीगुणलाइ प्रवर्धन गर्ने गरि परोपकारको शिक्षा दिनुभयो,भने असुर गुरु शुक्राचार्यले आसुरीविद्यालाइ प्रवर्धन गर्नको लागि परपीडन सम्वन्धी शिक्षा दिनु भयो। किन भने उनीहरु तमोगुण युक्त थिए त्यसैले  तमोगुणलाइ प्रवर्धन गर्ने शिक्षानै दिनुभयो। किनकि उनीहरुलाइ परोपरार सम्वन्धी शिक्षा दिएर फलिभूत हुन सक्दैन थ्यो जस्तै-

न दुर्जन: साधु दशामुपैति बहु प्रकारैरपि शिक्ष्यमाण:।

आमूलसिक्तं पयसा घृतेन न निम्ब वृक्षो मधुर त्वमेति।।चा नी ११/६

धेरै प्रकारले शिक्षा दिए पनि दुराचारी व्यक्तलाइ सदाचारी वनाउन सकिँदैन।जसरी नीमको विरुवालाइ रोप्दै देखि पानीको साटो दूध ,घ्यूले सेचन गरे पनि त्यसमा गुलियो पन आउन सक्दैन नीम जति गरे पनि तितोनै रहन्छ।  नीम मौलिक गुणनै तितोहो तीतोनै रहन्छ । नीमको रुखमा मीठो फल फलाउंछु भन्नू मूर्खता हुन्छ वरु नीममा भएको ओषधीय तत्वलाइ ओषीको रुपमा प्रयोग गर्नु वुद्धिमत्ता हुन्छ ।

भारतका स्वतन्त्र सेनानी डा० राजेन्द्र प्रसाद सवै परीक्षामा प्रथम हुन्थे  तर मोहनदास करमचन्द गान्धी सवै परीक्षामा तृतीय श्रेणीमा पास हुने। तर नतीजा यो भयो कि डा० राजेन्द्र भारतका प्रथम राष्ट्रपति वने भने मोहनदास करम चन्द गान्धी महात्मा गान्धी वने। त्यसैले प्रथम हुने र तेस्रो हुनेमा भेद नगरौं। सवैको मनोवल वढाउने काम गर्नु पर्छ घटाउने वढाउने हैन। 

अन्तमा आज विश्वमा झण्डै३०% को हाराहारिमा  मानिसहरु क्यान्सर जस्तो प्राण घातक रोग वाट पीडित भएका छन् भन्ने विज्ञहरुको भनाइछ। तेस्तै आज मानिसहरु जन्म देखिनै मुटुका रोगी भएर जन्मेकाछन् जुन आज शहरका हृदय रोग अस्पतालहरुमा गएर हेर्दा थाहा हुन्छ। तेस्तै आज हीनतावोध(डिप्रेशन)को सिकार भएका पनि तेतिनै छन् ।यश अलावा अन्य वात पित्त कफ(त्रिदोष) को असुन्तुलनले विरामी हुनेहरुको संख्या पनि अत्यधिकछ साथ साथै संक्रमित रोगहरुकोत कुरै नगरौं वेला वेलामा महामारीकै रुपमा देखा पर्दैछ। उता मेडिकल विज्ञानले पनि नयां नयां आविष्कार गरेकैछ,सोही अनुपातमा ओषधी  उद्योगहरुले  नयां नयां ओषधीहरुको उत्पादन पनि गरेकैछन् तर नियन्त्रण हुनुको साटो रोग झन् झन् वढ्दोछ। यस्तो अवस्था आउनुमा कहीं न कहीं  हाम्रो  वर्तमान शिक्षा पद्धति पनि जिम्मे वारछ।  किन भने हाम्रो आजको जुन शिक्षा प्रणालीछ  त्यसले पूर्णत पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति  पर्यावरण, प्राकृतिकवनावट,भौगोलिक अवस्था आदिवाट प्रभावित देखिन्छ जवकि हाम्रो सभ्यता ,संस्कृति प्राकृतिक अवस्था रहन सहन, खानपान, पेशा व्यवसाय  वातावरण,पर्यावरण जीविकोपार्जनका आधारहरु फरक ढंगको भएकोले शिक्षाको ढांचापनि तदनुकूलनै हुनु पर्नेमा सो अनुसार हुन सकेन जस्को परिणाम उल्टो निस्कदै गएकोछ। आजको हाम्रो शिक्षाले न हाम्रो धर्मलाइ अंगाल्न सकेकोछ न संकृति अनुकूलको भयो ,न कृषिक्षेत्रलाइ अंगाल्न सकेकोछ, न प्राकृतिक वातावरण,पर्यावरण, न  आत्मनिर्भर हुने शिक्षा दिन सक्यो  त्यस्तो शिक्षामा के क्वालिटी के गुणस्तरशिक्षाको कल्पना गर्न सकिन्छ?  त्यसैले शिक्षाको ढांचामा आमूल परिवर्तन गरि हाम्रो धर्म संस्कृति भौगोलिक अवस्था,पर्यावरण प्राकृतिक श्रोत ,साधनमा आधारित शिक्षापद्धति हुन आवश्यकछ । देशका विश्वविद्यालय वाट शिक्षाहासिल गरेको व्यक्ति वेरोजगार वन्न नपरोस र देशमा विद्यमान विश्वविद्यालयहरुले देसलाइ आवश्यक पर्ने दक्षजनशक्ति,अर्धदक्षजनशक्तिलाई पूर्ति गर्न सकुन्। ताकि स्वदेसी शिक्षित युवाहरु रोजगारीको लागि विदेसमा भौंतारिन नपरोस र स्वदेसलाइ चाहिने जनशक्ति विदेसवाट आपूर्ति गर्नु पर्ने जुन आजको स्थितिछ ती दिन भोलिका दिनमा नदोहोरिउन्।

आज हाम्रो शिक्षानीति कस्तोछ भने उहीँ नेपालीमा यौटा उखानछ नि “एका तिर आंधी(खोला) अर्को तिर पुल” अवस्था ठीक त्यहीछ। हामी हाम्रो देसलाइ कृषिप्रधान देस भन्छौं तर तर कृषिपेशालाइ उपेक्षा गरिएकोछ। जलश्रोतको धनीदेस, अमूल्य धनजडीवुटिको भण्डार भएको देस भन्छौं तर  हामीले तिनलाइ उपयोग गर्न सकेकाछैनौ अरुले लगेर उपयोग गरेकोछ। आज हामी विश्वविद्यालय वाट शिक्षाको उपाधीलिएको व्यक्तिलाइ विज्ञमान्छौ तर शीपभएको तर सर्टिफिकेट नभएकोलाइ हामी गन्दैनौं जवकि त्यो उपाधी प्राप्त साक्षर व्यक्ति भन्दा  असाक्षर व्यक्ति अझ गुणस्तरीय हुन सक्छ भन्ने कुरा हामीले विर्सिदिन्छौं।

आज हामी स्वभिमान र स्वावलम्वनको कुरा गर्छौं  तर खै हाम्रो स्वाभिमान? खै हाम्रो स्वावलम्वन?  खै हाम्रो देस भक्ति?  हाम्रा वाजे वराजुहरु आजका हामी जति शिक्षित थीएनन् तर उनीहरुमा धर्म संस्कृति,स्वाभिमान र स्वावलम्वी भावना थियो। विरामी पर्दा स्वदेसकै जडीवुटिको प्रयोग गर्थे, घरघरमा गाई भैंसी पाल्थे ,गाई भैसीकोदूध खान्थे,गाई भैंसीको मल खेतिवालीमा प्रयोग गर्थे ,हलो जुवाकोलागि वनका वुटाको प्रयोग गर्थे नारा मरेका गई भैसीको छालाको वनउंथे ।जोतारा वावियाको डोरीको वनाउंथे भने खेत जोत्न गोरु भाडालाइ उपयोग गर्थे ,यीनै आन्तरिक श्रोत वाट गुणस्तरीय (अर्गानिक)अन्नपात उव्जाउने गर्थे। यसरी वहांहरुको जीवन स्वस्थ ,सन्तुष्ट,स्वावलम्वी रही स्वभिमान पूर्वक जीवन यापन गर्नु हुन्थ्यो।

हाम्रा पूर्खाहरुको तुलनामा आज हामी कति कमजोर निरीह,कति अभावग्रस्थ, कति रुग्ण, कति परालम्वी, कतिलाचार ,कति अधर्मी ,भयौं के यस्मा वर्तमान शिक्षाको दोषछैन? अवश्यछ । हामीले आफ्नो स्वधर्म विर्सियौं, हामी संगभएको अमूल्यधनलाई चिनेनौ ,परधर्म तर्फ आकर्षित भयौं  हाम्रो मूख्य पेशाकृषि,जलश्रोत जडिवुटि आदि अमुल्यधनलाइ विर्सियौ र जल अरुलाइनै दियौं, वनअरुलेनै प्रयोग गरे यस्तै जडीवुटि, पनि अरुलेनै लगे, त्यसको वदलामा हामीले विदेसी मलल्यायौं, ट्रैक्टर ल्यायौं विउल्यायौं  । जुन साधन हामीकहां छैनन् तिनको प्रयोग गर्न लालायित भयौं जुन चिज सवै बाहिर वाट ल्याउन पर्छ अरुले नदिए हामी भोक भोकै मर्छौं। त्यसैले हाम्रो देसमा जुन जुन साधन र श्रोत स्वदेसमै  उपलव्ध हुन सक्छन् तिनको उपयोग गर्नको लागि आवश्यक पर्ने शिक्षा दीक्षा स्वदेसका विद्यालयहरु वाट हुनु पर्छ। जस्तो-

श्रीमद्भागवत दशमस्कन्धको अध्याय २४ मा आफ्ना वावा नन्दवावालाइ भन्नू हुन्छ-

भगवान अगाडि भन्नुहुन्छ–

न नःपुरो जनपदा नग्रामा न गृहा वयम् ।

नित्यं वनौकसस्तात वनशैल निवासिनः ।। २४

तस्मात् गवां ब्राह्मणानमद्रेश्चारभ्यतांमखः ।

य इन्द्रयागसम्भारास्तैरयं साध्तां मखः।। २५

पच्यतां विविधाःपाकाःसूयन्ताःपायसादयः

सयाचा पूप शष्कूल्यःसर्वदोहश्च गृह्यताम् ।। २६

हूयन्तामग्नयःसम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

अन्नं वहुविधं तेभ्यो देयं यो धेनुदक्षिणाः ।

भगवान् भन्नुहुन्छ– न त हामीसँग कुनै देशको राज्य छ, न सहर नै छ । न गाउँ न राम्रो घर छ । हामीसँग केबल यी गाईहरू छन् । यिनलाई  घांस दिने गिरिराज छन् । गाईले दुध, दही, घिउ, मखन दिन्छिन् । यिनको मलमूत्रबाट खेतमा अन्न उब्जन्छन् । घिउ चामलवाट हविष्यान्न बन्छ । त्यसलाई ब्राह्मणहरूले अग्निमा हवन गर्दा जलवायु परिवर्तन हुन्छ । त्यसले वर्षा हुन्छ । हाम्रो भोक प्यास मेटाउने यिनै गाई, गोरुले खेत जोत्छन् । बोझा बोक्छन् । त्यसकारण हाम्रो आजीविका चलाउने हाम्रा इष्टदेव यिनलाई पहिले पूजा गर्नुपर्छ । गाई ब्राह्मण तथा गिरिराजको पूजा गर्नलाई त्यही इन्द्रको पूजा गर्न ल्याएको सामानले हुन्छ । बाँकी यस दिन जजसको घरमा दुध घिउ जति हुन्छ त्यो सबै ल्याउने, गिरिराज तथा गो ब्राह्मणलाई पूजागरी मिष्ठान्न, दक्षिणा, हरियो घाँस दिई प्रसन्न गराउनुपर्छ । ब्राह्मणहरूद्वारा गायन गरिने स्वस्ति वाचन सहित गाईलाई अघि लगाएर सबै बाजागाजाका साथ गिरिराजको परिक्रमा गनुपर्ने बताउनुभयो । गोपालहरूले त्यसै गरे ।

भगवानले भन्नु भए जस्तै हामी नेपालीहरु संग ठूला उद्योग कारखाना,पेट्रोल खानी, कोइला खानी सुन चांदी हिरा खानी केही छैनन्  हामी संग प्रकृतिले दिएको जल जमिन जंगल छ त्यसमा प्रकृतिलेनै दिएकी कामधेनुगाइका सन्तान गौमाता छन् यी सवै एक अर्काका पूरक हुन् इ मध्ये कुनै एकको अभावमा वांकी पनि अधुरै रहन्छन् । यिनै वाट हाम्रा पूर्वजहरुको ीविका चल्दै आयो र हाम्रो पनि चल्छ। यिनमा गुण धर्म मिल्छ ,यिनैको संयोजन वाट गुणात्मक कृषिवाली उब्जाउ हन सक्छ। पृथ्वी संग न युरीया मलको मेल खान्छ न टैक्टरको ! के यी नेपालमा वन्छन्?  हामीहरुले आयतीत जहरीलो मल, टैक्टको पछि लागेर आंफुसंग भैरहेका गुणस्तरीय वस्तुलाइ विर्सेर अरुको देखासी गरेर हिडेर हुन्न  ,अरुवाट पाइने भनेको कुरा उधारोहो त्यसकोठेगानाछैन त्यसैले आंफुसंग जेछन् तीनै हाम्रा इष्टदेवहुन् तिनैको पूजागरौं हाम्रा इष्टदेव गाइ ,गोरु जंगल जमीन र जल हुन्।नीतिमा भनेको पनि छ- 

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते ।  

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

त्यसैले हाम्रो धर्म संस्कृति ,प्राकृतिक श्रोत साधन,भौगोलिक अवस्था ,स्वदेसमै उलव्ध साधन श्रोतमा आधारित शिक्षा नीति हुन आवश्यकछ। वर्तमान शिक्षा नीतिमा यी कुराहरुलाइ खासै जोड दिएको पाइंदैन। त्यसैले आज विश्वविद्यालयहरु वाट उच्च शिक्षा हासिल गरेका मानिसहरु शिक्षित नभएर साक्षर मात्रै भए। विद्यार्थीलाइ शिक्षा प्रदान गर्दा उसको संस्कार मनोवृति गुण र कर्मलाइ  ध्यानमा राखिएन ,यसको परिणाम  उल्टो आयो। कठोर प्रकृतिको व्यक्ति जसलाइ सैनिक शिक्षा दिन पर्नेहो उसलाइ त्यसको संस्कार विपरित कोमलप्रकृतिको शिक्षा दिइयो, जसलाइ रचनात्मक शिक्षा जस्तै संगीत वाद्यवादन ,कला आदि सृजनात्मक शिक्षादिनु पर्थ्यो त्यस्तालाइ सैनिक  शिक्षा दिइयो। जो विध्वंशक प्रवृतिकोछ उसलाइ निर्माण सम्वन्धी शिक्षा दिइयो जसको परिणाम भयंकर घातक सिद्ध भयो।  अत: शिक्षा नीति तर्जुमा गर्दा विद्यार्थीमा विद्यमा गुण,मनोवृति संस्कार आदिलाइ  विचर गरेर उपयुक्त पात्रलाइ उपयुक्त शिक्षा दिन सक्नुनै गुणस्तरीय शिक्षाहो। नत्र केवल साक्षरता मात्रैहो ।त्यस्तो विद्या विद्या होइन पञ्चक्लेश मध्येको अविद्या ( अज्ञान  )हो। जसले  सवलाइ दु:ख दिन्छ र खूद आंफै पनि दु:खको सागरमा डुब्छ। जो आज पनि समाजमा मनुष्यका रुपमा पशुतुल्य वनेर घुमेकाछन्। त्यसैले  शिक्षा प्रदान जुन व्यक्तिमा जस प्रकारका गुणछन्  तिनलाइ त्यस्तै प्रकारको शिक्षा दिइनु उपयुक्त हुन्छ। आजको शिक्षा प्रणालीलाई भन्नत वैज्ञानिक शिक्षा भनिन्छ तर यस पद्धतिमा विद्यार्थीको गुणस्तरलाइ मापन गर्ने कुन प्रणालीछ?  त्यस्तो कुनै साधन छैन वरु प्राचीन अध्यात्म विद्या अन्तर्त पर्ने जुन १६ संस्कारछन् त्यसमध्येको अन्नप्राशन संस्कारमा वालकलाइ आफ्नो जीविकोपार्जन कुन पेशावाट हुन सक्छ ?सो पेशाको चयन स्वयं वालकलेनै गरोस भनी वालको अघाडी किताब, कापी कलम, कृषि ओजार, वाद्यवादन का साधन,खेलकूदका साधन आदि साधनहरु राखिन्छ र वालकले जुन साधन समाउंछ त्यस वाट उसको जीविको पार्जन हुने अनुमा लगाइन्छ। अर्थात् वालकले आफ्नो गुण स्वभाव र प्रकृति अनुसार उक्त साधन चयन गर्यो भनी अनुमान गरीन्छ। यो माध्यम कतिवैज्ञानिकछ। आज आधुनिक शिक्षाले पागल वनेकाहरु बाल वालिकाहरुलाइ यौन शिक्षा दिनु पर्छ भन्ने गर्छन् ,तर वालवालिकालाइ यौन शिक्षा हैन  ,हाम्रा शाश्त्रहरुले धर्मपूर्वक कामोपभोग गर्न गर्भाधान संस्करको व्यवस्था गरेकाछन् । जस अन्तर्गत ओंशी पूर्णिमा,एकादशी जन्ममिति ,निसिद्धातिथि  रजस्वलाभएको ४दिन छाडी रजस्वला भएको पाचौं दिन देखि केवल १६ दिन सम्म मात्र केवल सन्तानोत्पत्तिको लागि मात्र  आफ्नी धर्मपत्नीका साथमा कामोपभोग गरेको खण्डमा  त्यसै वाट वैज्ञानिक यौनशिक्षाको ज्ञान पनि मिल्छ र  ऐले भयावहरुपमा चलेको महापाप कर्म भ्रूणहत्या र वन्ध्याकर जस्ता जघन्य अपराधका कर्म पनि रोकिन्छन् र मनुष्यजीवनका ४पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम र मोक्ष पनि प्राप्त हुन सक्छ। अत: शिक्षालाइ गुणस्तरी वनाउन  जस्मा जे जस्ता गुण धर्म र संस्कारहरुछन् तीनै गुणहरुलाइ प्रस्फुटन गराउनु विद्यालय र शिक्षकहरुको कामहो र गुणधर्मअनुसार जो जसले जुन विधामा दक्षता हासिल गरेकोछ उसलाइ तदनुरुपकै काममा लगाउनु राज्यको धर्महो।, विद्यार्थीलाइ प्रतिस्पर्धाको दौडमा दौडाएर उसलाइ अपाङ्ग नवनाउनु हुंदैन। बिस्तारै विस्तरै  विद्यार्थीले वुझ्ने गरेर उसको गुणधर्म अनुसारको शिक्षा प्रदान गर्नुनै श्रेयस्कर हुन्छ। 

शनै:पन्था शनै:कन्था शनै पर्वतलङ्घनम्।

शनै विद्या शनै वित्तं  पञ्चैतानि शनै:शनै:।।

बिस्तारै विस्तरै वाटो हिड्नु, विस्तरै पुरानो कपडा लगाउनु, अनि विस्तरै हिंडेर पर्वत चढ्नु, तेसै गरी बिस्तारै  विद्या आर्जन गर्नु र यसै धन सम्पत्ती पनि बिस्तारै जोड्नु। यसो गर्दानै चीर स्थाइ हुन्छ। शिक्षा नीति यस्तै हुनु पर्छ। जयश्रीकृष्ण राधे

 

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